अहमद फ़राज़
कुछ इस तरह से गुजरी जिंदगी जैसे
तमाम उम्र किसी दूसरे के घर में रहा
किसी को घर से निकलते ही मिल गई
मंजिल कोई उम्र भर सफर रहा
रंजिश ही सही ,दिल ही दुखाने के लिय आ
आ फिर से छोड़ के जाने के लिय आ |
किस किस को बतांएगे जुदाई का सबब हम
तू मुझसे ख़फ़ा है तो ज़माने के लिय आ |
पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्मो-रहे-दुनिया ही निभाने के लिय आ |
जैसे तुझे आते है न आने के बहाने
ऐसे ही किसी रोज़ न जाने के लिेए आ
वो पास नहीं अहसास तो है ,इक याद तो है इक आस तो है
दरिया-ए -जुदाई ,में देखो तिनके का सहारा कैसा है |
मुल्कों मुल्कों घूमे है बहुत ,जागें है बहुत रोये है बहुत
अब तुमको बताएं क्या यारो दुनिया का नज़ारा कैसा है |
ऐ देश से आने वालो मगर तुझको तो न इतना भी पूछा
वो कवि कि जिसे बनवास मिला वो दर्द का मारा कैसा है |
एक मुद्दत हुई लैला-ए-बतन से बिछड़े
अब भी रिसते हैं मगर ज़ख्म पुराने मेरे
जब से सर सर मेरे गुलशन में चलीं है तब से
बर्ग आवारा की मानिन्द ठिकाने मेरे
अकेलेपन की अज़ीयत का अब गिला कैसा
फ़राज़ खुद ही तो अपनो से हो गए थे अलग
और तेरे शहर से रख्ते सफर बाँध लिया
दरों -दिवार पे हसरत की नज़र क्या करते
चाँद कजलाई हुई शाम की दहलीज़ पे था
उस घडी भी तेरे मजबूरे-सफर क्या करते
मिल जाए जो में फ़राज़ अब वही हमदम
हो जाए जहाँ शाम वही रैन बसेरा |
झेले हैं जो दुख अपनी जगह है पर
तुम पे जो गुजरी है वो औरों से तो कम है
वो ठहरता क्या कि गुज़रा तक नहीं जिसके
लिए घर तो घर हर रास्ता आरास्ता मैंने किया
ये दिल जो तुझको बा ज़ाहिर भुला चुका भी है
कभी कभी तेरे बारे में सोचता भी है
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