Ahmad Faraz Shayari अहमद फ़राज़ की शायरी
हाकिम की तलवार मुकद्दस होती है
हाकिम की तलवार के बारे में मत लिक्खो
वह लिक्खो बस जो मेरे अमीरे शहर कहे
जो कहते हैं दर्द के मारे मत लिक्खो
HINDI SHAYARI
ऐसा गुम हो तेरी यादों के बयांबानो
में दिल न धड़के तो सुनाई नहीं देता कुछ भी
बज़ाहीर एक ही शब है फ़िराके यार ,
मगर कोई गुज़ारने बैठे तो उम्र सारी लगे।
अब तो हमें भी तर्क मरासिम का दुख नहीं
पर दिल ये चाहता है कि आगाज़ तू करे
किसी शहरे बे अमाँ में
मैं वतन बदर अकेला
कभी मौत का सफर था
तभी जिंदगी से खेला
'ख्वाब दिल है न आँखे न साँसे कि जो
रेज़ा-रेज़ा हुए तो बिखर जाएगे
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ख्वाब तो रोशनी है नवा है हवा है
जो काले पहाड़ो से रुकते नहीं
ज़ुल्म के दोज़ख से भी फूकते नहीं
रोशनी और नवा और हवा के अलम
मकतलों में पहुंचकर भी झुकते नही
ख्वाब तो हर्फ़ है
ख्वाब तो नूर है
ख्वाब सुकरात है
ख्वाब मंसूर है "
Ahmad Faraz -अहमद फ़राज़ शायरी
दिल भी पागल
है कि उस
शख़्स से वाबस्ता
है
जो किसी और
का होने दे न अपना रखे
हुजूम ऐसा की राहे नजर नहीं आती नसीब
ऐसा कि अब तक तो काफिला न हुआ
रात भर हंसते हुए तारों ने उन
के आरिज़ भी भिगोए होंगे
इक ये भी तो अंदाज ए इलाज़ ए ग़म जाँ है
ऐ चारा दर्द बढ़ा क्यू नहीं देते
जो ग़ज़ल आज तिरे हिज़्र में लिखी है
वो कल क्या खबर है अहल ए
मोहब्बत का तराना बन जाए
फराज तेरे जुनू का ख्याल है वर्ना ये
क्या जरूर वो सूरत सभी को प्यारी लगे
जिस सम्त भी देखूं नजर आता है कि तूम हो
ऐ जान ए जहाँ ये कोई तुम सा है कि तुम हो
चले थे यार बड़े ज़ोम में हवा की तरह पलट
के देखा तो बैठे हैं नक्श ए पा की तरह
साकी ये खामोशी भी कुछ गौर-तलब है
साकी तेरे मय ख्वार बड़ी देर से चुप हैं
मुद्दतें हो गई फराज मगर वो
जो दीवानगी कि थी है अभी
टूटा तो हूं मगर अभी बिखरा नहीं फ़राज़
मेरे बदन पे जैसे शिकस्तो का जाल हो
जो गैर थे वो इसी बात पर हमारे हुए
कि हम से दोस्त बहुत बे खबर हमारे हुए
मय कदे में क्या तकल्लुफ़ मय-कशी में क्या हिज़ाब
बज़्म ए साकी में अदब आदाब मत देखा करो
जुज़ तिरे कोई भी दिन रात न जाने
मेरे तू कहां है मगर ऐ दोस्त पुराने मेरे
जी मैं जो आती है कर गुजरो कहीं ऐसा ना हो
कल पशेमाँ हो कि क्यू दिल का कहा माना नहीं
क्या कहें कितने मरासिम थे हमारे उस से
वो जो इक शख्स है मुंह फेर के जाने वाला
पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्म ओ रह ए दुनिया ही निभाने के लिए आ
तआ'ना ए नश्श न दो सब को कि कुछ सोख्ता
जा शिद्दत ए तिश्र लबी से भी बहक जाते है
हम को अच्छा
नहीं लगता कोई
हमनाम तेरा
कोई तुझ सा
हो तो फिर
नाम भी तुझ
सा रखे
अब तो इस
तरह मेरी आँखों
में ख़्वाब आते
हैं
जिस तरह आईने
चेहरों को तरस
जाते हैं
एहतियात अहल ए
मोहब्बत कि इसी
शहर में लोग
गुल ब दस्त
आते हैं और
पा ब रसन
जाते हैं
जैसे तजदीद ए त'अल्लुक़ की भी
रुत हो कोई
ज़ख़्म भरते हैं तो ग़म-ख़्वार
भी आ जाते
हैं
साक़िया तू ने
तो मय-ख़ाने
का ये हाल
किया
बादा-कश मोहतसिब
ए शहर के
गुण गाते हैं
ताना ए नशा
न दो सबको_
कि कुछ सोख़्ता
जाँ
शिद्दत ए तिश्ना
लबी से भी बहेक जाते हैं
हर कड़ी रात
के बाद ऐसी
क़यामत गुज़री
सुबह का ज़िक्र
भी आए तो
लरज़ जाते हैं
हर कोई दिल
की हथेली पे
है सहरा रखे
किस को सैराब
करे वो किसे
प्यासा रखे
उम्र भर कौन
निभाता है तअल्लुक़
इतना
ऐ मिरी जान
के दुश्मन तुझे
अल्लाह रखे
हँस न इतना
भी फ़क़ीरों के
अकेले-पन पर
जा ख़ुदा मेरी तरह
तुझ को भी
तन्हा रखे
ये क़नाअ'त है
इताअत है कि
चाहत है फ़राज़
हम तो राज़ी
हैं वो जिस
हाल में जैसा
रखे
हम दोहरी अज़िय्यत के गिरफ़्तार मुसाफ़िर
पाँव भी हैं
शल शौक़-ए-सफ़र भी
नहीं जाता
दिल को तिरी
चाहत पे भरोसा
भी बहुत है
और तुझ से
बिछड़ जाने का डर भी नहीं
जाता
रफ़ाक़तों में पशेमनियाँ तो
होती हैं
कि दोस्तों से भी नादानियाँ तो होती
हैं
बस इस सबब
से कि तुझ
पर बहुत भरोसा
था
गिले न हों
भी तो हैरानियाँ
तो होती हैं
उदासियों का सबब
_क्या कहें ब-जुज़ इसके
ये ज़िन्दगी है परेशानियाँ
तो होती हैं
फ़राज़ भूल चुका
हैतेरे फ़िराक़
के दुख
के शायरों में तन-आसानियाँ तो होती
हैं